विलक्षण प्रतिभावान, सावित्री बाई फूले अपनी लगन, कठिन परिश्रम, व्यवहार कुशलता से मराठी कवियित्री, पहली नेत्री, समाज सुधारक, रुढ़िवाद और कुरीतियों की घोर विरोधी, प्रगतिशील, नारी सशक्तिकरण की मिसाल बन बालिकाओं के लिए शिक्षा, अनुशासन और ज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया| उन्होंने भारत में नारी मुक्ति आन्दोलन की अलख जगायी, आज महिलाओं को जितनी शक्ति प्राप्त हो रही है, उन्होंने लगभग 200 वर्ष पहले ही महिलाओं को शोषण, अनाचार, अत्याचार, अज्ञानता से संघर्ष करने का मार्ग दिखा अपनी लड़ाई खुद लड़ने की प्रेरणा दी।
सावित्री बाई फूले का जन्म 3 जनवरी 1831 में सतारा जनपद पुणे के पास महाराष्ट्र में हुआ था, उस समय बाल विवाह का प्रचलन था, इनकी शादी भी 9 वर्ष की उम्र में इनसे उम्र में बड़े 13 साल के ज्योतिराव फूले से धूमधाम से सम्पन्न हुई, लेकिन इन्हें यह विवाह केवल एक समारोह जिसमें खाने-पीने के सुन्दर व्यंजन, खेल-कूद के सिवा कुछ नहीं था, फूले इनका उपनाम पड़ा, इसलिए कि इनके यहाँ फूलों की खेती और विक्रय का कार्य होता था। सावित्री बाई फूले की शिक्षा अपने खेत में काम करने के कारण शून्य थी, लेकिन जब वह अपने पति के घर आयी तो उन्होंने उन्हें शिक्षित किया, इनके पति महात्मा ज्योतिराव फूले जब शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब भी वर्चस्ववादी, सामंतवादी, रुढ़िवादी, पाखंडी ताकतें उनके शिक्षा ग्रहण करने के कार्य से खुश नहीं थी बल्कि उन्हें एक मित्र की शादी में अपमानित भी किया गया था, इस घटना से उनके मन में बहुत पीड़ा हुई, उन्होंने निश्चय किया मै कमजोर वर्गों तथा महिलाओं को शिक्षित करने के लिए विद्यालय की स्थापना करूँगा।1848 में बालिकाओं के लिए पहले विद्यालय की पुणे में स्थापना की, लेकिन शिक्षा पर कब्ज़ा करने वाला वर्ग इनके काम का विरोधी रहा, इन्हें स्कूल खोलने के लिए अहंकारी ताकतें न कोई मकान, न शिक्षा देने के लिए, बल्कि अध्यापक, अध्यापिकाओं की व्यवस्था में लगातार अड़चन डालने का कार्य करते रहे, इनका साथ दिया अपना मकान देकर गफ्फार शेष ने, सावित्री फूले को स्वयं इनके पति ने शिक्षित किया था, वह पहली महिला शिक्षिका बनी, इस कार्य में इनका साथ दिया शेष फातिमा ने, उन्होंने कन्धा से कन्धा मिला इस पुनीत कार्य को आगे बढाया, सावित्री बाई फूले अब शिक्षिका होने के साथ-साथ भारत में नारी मुक्ति आन्दोलन की पहली नेत्री और समाज सुधारक बन गयी, इन्हें महिलाओं को शिक्षित करने, रुढ़िवाद, पाखंड, कुरीतियों, अन्याय और शोषण से मुक्त कराने के लिए वर्चस्ववादी, अहंकारी ताकतों का अपार विरोध झेलना पड़ा, कई बार इनके ऊपर मल-मूत्र, गोबर, पत्थर फेंके गये, लेकिन वह इन अमानवीय आचरण की परवाह न करते हुए अपने साथ दो साड़ी रखती थी, वह विद्यालय में साड़ी बदल कर छात्राओं को शिक्षित करती रही।
जब पाखंडियों, शिक्षा माफियाओं को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने ज्योतिराव के पिता गोबिंद जी को भड़काकर कि महिलाओं को शिक्षा देकर आपका परिवार नर्क में चला जायेगा, घोर पाप ज्योतिबाराव फूले और आपकी पुत्र-बधू कर रहे है, उन्होंने इनको घर से निकाल दिया, लेकिन आर्थिक तंगी झेलते हुए इन्होने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, सावित्री बाई फूले का परिवार संपन्न था, जब उन्होंने अपने भाई से आर्थिक सहायता मांगी, तो उन्होंने कहा कि “हम तुम्हारे लिए आर्थिक मदद देकर नर्क में चले जांय, साफ इंकार कर दिया, सावित्री बाई फूले ने उनका प्रतिकार नहीं किया, बल्कि कहा कि आप लोग अंजान, शिक्षा के महत्व और हमारे कार्य को समझने में भूल कर रहे है, अपने उद्देश्य में लगे रहे, उनकी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने पूरे समाज, देश के बच्चों को अपनी संतान मान छुवाछूत, जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच, बाल विवाह, विधवा विवाह जैसी कुरीतियों पाखंड, रुढ़िवाद के समूलनाश के लिए लगातार कार्य किया। अब 1851 तक इन्होने तीन महिला विद्यालय की स्थापना की, प्रभारी बनी। वह शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि महिलाओं के लिए प्रसूति गृह की स्थापना की, जिससे शिशु सुरक्षित पूर्ण जन्म ले सके, उन्होंने ब्राह्मण विधवा से पैदा हुए यशवंत को डा0 यशवंत बनाया, गोद लेकर पूरी शिक्षा दिला एक समाज में मिसाल पैदा की, उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की वकालत की, सावित्री बाई फुले ने विद्यालयों और परित्यक्त बच्चों के लिए भी गृह बनवाया, सावित्री बाई फुले ने महात्मा ज्योतिराव के साथ मिलकर “सत्य शोधक समाज” की स्थापना कर पितृ सत्ता, जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, दहेज़ प्रथा का विरोध किया, अपने पति महात्मा ज्योतिराव का अंतिम संस्कार 1890 में स्वयं कर अनुकरणीय कार्य किया, अब ज्योतिराव के निधन के बाद सत्य शोधक समाज का सारा भार भी उन्हें वहन करना पड़ा, समाज सुधार की जिम्मेदारी भी उन्हें निभानी पड रही थी, कि पुणे में प्लेग फ़ैल गया, अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ प्लेग से पीड़ित बच्चों, महिलाओं, कमजोर वर्गों की सेवा करते हुए वह खुद प्लेग की चपेट में आ गयी, और 10 मार्च 1897 को इस असार संसार को अलविदा कर गयी, लेकिन अथक परिश्रम, उनके आधुनिक विचार,, नारी मुक्ति आन्दोलन के उनके कार्य, ब्राह्मणवादी व्यवस्था, पितृतात्मक सत्ता को चुनौती पूर्ण विचार, आज भी समाज, देश को संघर्ष के लिए उद्वेलित करते रहेंगे, उनका कहना था कि “गौरवपूर्ण जीवन जीने के लिए शिक्षित बनो” उन्होंने महिलाओं से कहा कि “आपकी प्रतिभा पुरुषों से कम नहीं, केवल रसोईं घर और खेत में कार्य करना नहीं, आप पुरुषों से अच्छा कार्य कर सकती हैं
लेखक : राम दुलारयादव (शिक्षाविद)
संस्थापक/अध्यक्ष
लोकशिक्षण अभियान ट्रस्ट